गुलाबो और यक्ष प्रश्न
“बाबा एक यक्ष प्रश्न लेकर आई हूँ….”
“बोलो गुलाबो”
“ये बसंत के आगमन होते ही वातावरण इतना रोमांटिक क्यों हो जाता है? मेरे वात्सल्य मन में प्रेम बरसाती मेघ की तरह उमड़ने-घुमड़ने लगता है, नाक-कान-आँख-ह्रदय सब प्रेम रस पान को व्याकुल हो जाता है ”
“ये ऋतुराज हैं गुलाबो…..इनके मादक राज में तो विश्वामित्र भी अपनी हठ नहीं संभाल पाये थे…”
“और बाबा आप?”
“गुलाबो, मैं गंधर्व गृहस्थ संत हूँ….घर प्रवासी पंछी की तरह बसते-उजड़ते रहता है”
“’बाबा ?”
“गुलाबो कल चन्द्रनाथ बाबू के घर गया था, देखा एक कन्या छत पर कपड़े टांग रही है, बस मुझे पीठ दिखाई दिया और दोनों कन्धों के बीच गर्दन के नीचे पीठ की गहराई पर नज़र अटकी सी थी…तभी.”
चन्द्रनाथ बाबू आवाज़ दिए “आँगन में कोई है? शकुंतला एक चाय लाना बेटा, बाबा दुष्यंत आये हैं”
“शकुंतला जब चाय की गर्म प्याला अपने नरम हाथों में संभाले मुझे थमाई, अपनी हाथों की उंगलियों पर उसके स्पर्श की अनुभूति हुई, उनकी-मेरी पुतलियों के बीच १८० डिग्री का एक कोण बना, मुस्कुराते हुए अपने गीले बालों को एक झटके में उसने अपने गालों से जुदा कर दिया…मेरे तो रोम रोम में अग्नि का स्फुलिंग स्फुरित होने लगा….दिल ने तय कर लिया की चाहे आज हमारी चिता को मुखाग्नि चन्द्रनाथ बाबू ही क्यों न दें… पर…”
“’पर’ क्या बाबा ?“
“बस गुलाबो तुम्हारा ख्याल आ गया और….”
“सच बाबा ?”
“हाँ गुलाबो, मुझ विश्वामित्र की तुम ही मेनका हो, बस एक बार समय पर आ जाओ कि अपनी तपस्या मैं भी भंग करूं”
“बाबा…..”
“गुलाबो निसंतान को मोक्ष नहीं मिलता है |”
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