खेती-किसानी सुनते-बतियाते हमें अक्सर सुदूर देहातों में घूमने का मौका मिलता है, कई तरह की भाषाएं सिखने को मिलती है, कई क्षेत्रीय रीति-रिवाजों को जानने-समझने का मौका मिलता है । हम अपनी मिट्टी, अपने देस को बेहद करीब से जानने लगते हैं । किसी किसान के यहां जब गाय दुहकर आपके लिये ‘चाह’...
ख़ुशी – तेरे ना...
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ख़ुशी कैसी हो ? तेरे नाम से पहले कोई विशेषण अच्छा नहीं लगता मुझे | मुझे सिर्फ तुम ‘तुम जैसी’ ही अच्छी लगती हो | पिछले कुछ दिनों से जिस्म कि तकलीफें बढ़ गयी थी, लोग-बाग़ के साथ साथ आलमारी में लगा सीसा भी शिकायत करने लगा था | दिल कि तकलीफों को तो कोई नहीं देखता ख़ुशी पर जिस्मानी तकलीफें सब को नज़र...
‘मसाफिर कैफ़े’ –...
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‘मसाफिर कैफ़े’ दिव्य प्रकाश दुबे भाई कि तीसरी किताब है | यह एक छोटी सी उपन्यास है जिसे आप बड़े मजे स्टेशन के बुक स्टॉल से खरीदकर 2-३ घंटे में इस पार से उस पार तक पढ़ कर अगले स्टेशन पर बुक स्टॉल पर जमा कर सकते हैं, और फिर अगले स्टेशन तक के लिए नई किताब ले सकते हैं | इनके लिखने का अंदाज बड़ा सहज...
तुम्हें याद है ??...
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आज फिर से २५ दिसम्बर है, तुम्हें याद है ? मेरे लिए तो ये दिन कई मायनों में खास है, तुम्हारे लिए भी होगा पर हमारे लिए ? हमारे लिए ये वो दिन है जब हमने एक दुसरे को आखिरी बार स्पर्श किया था और फिर हमेशा के लिए अपने पतवार को अलग मोड़ लिया था | ज़ेवियर में मोमबत्ती जलातेवक़्त हम कैसे पति-पत्नी की तरह...
प्यार-व्यार
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“अदना सा तो सपना है आ ऊहो पर हंगामा है । बोलता है संतुष्ट रहो; ईहो कोई बात है, काहे रहें? है ही का हमरे पास, एगो छोटका गो कमरा, एगो अखड़ा खाट आ एगो पड़ोसी का जंगला….गाम में एगो कठही गाड़ी था ऊहो बाबूजी बेच दिए ।” मैं चौधरी जी के दुकान पर प्याज चुनते हुए बड़बड़ाये जा रहा था, ध्यान ही नहीं दिया की पीछे जंगला वाली भी तेल लेने आयी है । वो सब सुन ली थी । नाक-भौंह सिकोड़े हुए चेहरे की भंगिमा बनाकर विष्मय प्रकट की । मैं अपने ही सर पर पीछे से एक हाथ लगाया…’साला ई नौकरी के फ्रस्ट्रेशन में कहीं भी कुछो बक देता हूँ ।’ पाटलिपुत्रा में उसका घर मेरे घर के ठीक सामने था, जंगले के पास उसका स्टडी-टेबल था । मेरा कमरा भी यही था,...
काशी- यात्रावृतांत...
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अभी काशी से विदा भी नहीं हुआ था कि कूची मष्तिष्क के अंतरपटल पर हर्ष की स्याही से क्षणों को दकीचे जा रहा था । पेट से माथे तक बबंडर उठा हुआ था । लेखक मन व्याकुल था, बार-बार कोशिस करता था और शब्द अव्यवस्थित हो रहे थे । मैं हर क्षण को शब्दों की चादर में छुपाकर आप तक सहेजकर कर लाना चाहता था । हम...
दिवाली
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गाम की दिवाली अब नसीब नहीं होती….और शहर की यह चाइनीज दिवाली रास नहीं आती । बस यादों में सिमट कर रह गयी है । दादीमाँ मिट्टी की दिवारी (दीया) बनाती थी, हम बाँस के खोपलैया को ताड़ में गूँथ कर हुक्कालोली बनाते थे । बाद में दर्जी के यहाँ गेनी (कपड़े के टुकड़ो को बॉल की तरह बनाकर लोहे के ताड़...
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