बिहार का लोक उत्सव सामा-चकेवा
बिहार में कुछ त्योहार कुछ लोक उत्सव ऐसे हैं जो प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान के प्रतीक के रूप में मनाये जाते हैं । मकर संक्रान्ति, छठ ऐसे ही कुछ त्योहार हैं । इसी तरह का एक लोक उत्सव है सामा-चकेवा । यह मुख्य रूप से बिहार के मिथिला क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है ।
महिलाएँ पारम्परिक रूप से सज-धज कर कार्तिक पूर्णिमा के शाम को मैथिली लोकगीत गाती हुई बाँस की टोकड़ी में मिट्टी के बने सामा-चकेवा, श्री सामा, चुगला, वृंदावन, बाटो बहिना, सतभैयाँ, पक्षी, पेड़, जानवर आदि के मिट्टी की बनी मूर्तियाँ लेकर खेतों में जाती हैं और इन मूर्तियों के साथ सामा-चकेवा का उत्सव हर्षोल्लास के संग मनाती हैं । इस उत्सव को ही सामा-चकेवा का खेल भी कहा जाता है । इन मूर्तियों के बनाने की प्रक्रिया छठ के पारण के दिन से शुरू होती है और छठ के आठवें दिन अर्थात कार्तिक पूर्णिमा के दिन ख़त्म होती है । चुगला प्रतीक है चुगलखोड़ी करने वालों का जिसे खेल के आख़िरी में जला दिया जाता है । और अन्य मूर्तियों को जोते हुए खेत में नए धान के चुरे और गुड के साथ विसर्जित कर दिया जाता है ।
मान्यताओं के अनुसार यह उत्सव एक प्रतीक है भाई-बहन के प्रगाढ़ स्नेह और विश्वास का । बहन लोकगीतों के माध्यम से अपने भाई का गुणगान करती हैं उनकी लम्बी आयु की कामना करती हैं । जीबो-जीबो जीबो कि तोर भैया जीबो की मोर भैया जीबो कि लाख बरिसा जीबो……. कुछ इस तरह के लोकगीत से भाई के उम्र और उसके बलवान होने की कामना की जाती है | कहा जाता है कि जब भगवान श्री कृष्ण ने एक चुगला के कहने पर अपनी बेटी सामा (श्यामा) को पक्षी बनने शाप दे दिया था तो सामा के भाई चकवा ने भगवान से बहुत प्रार्थना की और घनघोड़ तपस्या करके भगवान को प्रसन्न करके एक लम्बे समय अंतराल के बाद सामा को पुनः उनके असली रूप में प्राप्त किया ।
वस्तुतः यह उत्सव सर्दी में मिथिला के मैदानी भागों में आनेवाली रंग-विरंगी प्रवासी पक्षियों के सम्मान और उनके लिए सुरक्षित और अनुकूल वातावरण बनाए रखने के प्रतीक के रूप में मनाया जानेवाला लोक पर्व है । इन दिनों में मिथिला में कई प्रवासी पक्षी आते हैं, नदियों, तालाबों और चौर के आसपास इनका आशियाना रहता है | कुशेश्वर स्थान की तरफ़ जब कभी घूमने जाईएगा या कोशी के किनारे जब घूमने जाईएगा या भागलपुर में गंगा के किनारे आपको इन दुर्लभ पक्षियों का कलरव बड़ा मनमोहक लगेगा । इन क्षेत्रों में कुछ शिकारी भी अवैध रूप से इसके शिकार में लगे रहते हैं | सामा चकेवा पर्व में चुगला इन्हीं दुष्ट आत्माओं का प्रतीक है जो इन पंछियों में कलरव में ख़लल देता है और सामा चकेवा की मूर्तियाँ इन ख़ूबसूरत पंछियों का प्रतीक है जिन्हें नया धान का चुरा, दूब, गुड़ खिलाकर शीत चटाकर माँ-बहन-चाची-बुआ-भाभी इनका स्वागत गान गाती है, हथदह पोखरि खुना दैह कि चम्पा फुल लगा दैह हे…. साम चक साम चक आबिह हे… जोतला खेत में बैसिह हे… और इनके सम्मान में यह लोकपर्व मनाती हैं |
वक़्त के साथ आज जब गाम वीरान सा हो गया है, परिवार टुकड़ों में बँट चुका है, सब बीबी-बच्चों के साथ शहर पलायन कर चुके हैं तो ऐसे में इस तरह के कई लोक पर्व, उत्सव, त्योहार अब हम जैसे आधे शहरी आधे गमैया देहाती लोग जिनके एक टाँग गाम में होता है और एक शहर में, के आँखों और आहों में सिमट कर रह गया है । अब बस हम संस्कृति की बातें, लोकगीत की बातें, लोकनृत्य की बातें, लोकपर्व की गाथाएँ इंटरनेट के मकड़जाल और पोडियम पर कर पा रहे हैं । ऐसे में कुछ युवाओं ने सपना देखा है अपनी पहचान बचाने का, अपनी संस्कृति को सवाँरने का और आपके पास पैसा तो थोड़ा है पर वक़्त नहीं है तो आपतक इन चीज़ों को सुविधापूर्वक समय से पहुँचाने का, अब आपका साथ तो हमारा हक़ बनता है । है ना?
इस कार्तिक पूर्णिमा अर्थात २२ नवम्बर को पटना, वाराणसी और दिल्ली में रहकर भी अपने खेत की मिट्टी के बने सामा-चकेवा से अपने कॉलोनी के पार्क में या अपने घर के छत या बालकोनी मे यह लोक उत्सव आप मना सकते हैं । हमारे Mukund Mayank प्रयासरत हैं आप तक समय से सामा चकेवा पहुँचाने के लिए । आपने ऑर्डर किया क्या ? फ़ोन घुमाइए इस नम्बर पर 7542800717 और अपना ऑर्डर बुक करवाईए । सामा-चकेवा पर्व से जुड़ी एक किताब ‘पावनि-तिहार’ भी सैपीमार्ट पर उपलब्ध है |
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(कलाकारी मेरी बहन शिवानी के हाथों की है और लेंस #Beparwah_Clicks का है, बाक़ी आइडिया MukundA का ही है )
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